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उल्फ़त का आशिक़ी का हर इक रिवाज बदला

मौसम की तरह जानाँ तेरा मिज़ाज बदला

जज़्बों की वो दीवाली अरमान की वो ईदें

रूठे वो ख़्वाब सारे टूटीं सभी उम्मीदें

न जाने कौन है

न जाने कौन है वो अजनबी

वो हमनवा मेरा

 

न जाने कब से इक एहसास बन कर आ गया है वो

खयाल-ओ-ख़्वाब पर, जह्न-ओ-तबअ पर छा गया है वो

कभी सरगोशियों में धड़कनों की लय सुनाता है

कभी चुपके से इक उल्फ़त का नग़्मा गुनगुनाता है

 

ख़ुमारी झाँकती रहती है बहकी बहकी साँसों से

कभी साँसें महक उठती हैं उसकी महकी साँसों से

कभी उसके लबों का लम्स छू लेता है गालों को

चुना करती हैं आँखें उसकी नज़रों के उजालों को

 

न जाने कौन है, किस की इबादत करती रहती हूँ

किसी एहसास के पैकर से उल्फ़त करती रहती हूँ

मेरे जज़्बे की धड़कन है, मेरी उल्फ़त का दिल है वो

तसव्वर है, तख़य्युल है, सराब-ए-मुस्तक़िल है वो

 

न जाने कौन है

वो अजनबी

वो हमनवा मेरा

नज़्म-चाहत

तुम्हारी आरज़ू में रंग भरना चाहती हूँ मैं

तुम्हें जी भर के जानाँ प्यार करना चाहती हूँ मैं

ये लंबा फ़ासला आख़िर मुझे कैसे गवारा हो

तुम्हारी वहशतों को कुछ मेरे दिल का सहारा हो

समेटूँ अपने दामन में तुम्हारे दिल के सन्नाटे

निगाहों से मैं चुन लूँ सब तुम्हारी राह के काँटे

मेरी हर जुस्तजू तुम से शुरू हो, खत्म तुम पर हो

तुम्ही हो ज़िन्दगी मेरी तुम्ही मेरे मुक़द्दर हो

तुम्हारे काम न आए तो मेरी ज़िन्दगी क्या है

हर इक सजदा मेरा बेकार है ये बंदगी क्या है

ख़ुशी ले लो मेरी मुझ को तुम अपने सारे ग़म दे दो

मुझे इतनी जगह तो अपने दिल में कम से कम दे दो

डाइरेक्टरी बराए शुअरा ओ शाइरात (कवियों और कवियित्रियों की डाइरेक्टरी)

हम ने एक डाइरेक्टरी मुरत्तब करने का इरादा किया है, जिस में शाइरों और शाइरात के न सिर्फ़ नाम, पता और फोन नंबर होंगे बल्कि उन का एक शेरी नमूना और मुख्तसिर तअर्रूफ़ भी होगा. शुअरा हज़रात से गुज़ारिश है कि इस में शमूलियत के लिये दर्ज ए ज़ैल मालूमात दिये गए address पर इरसाल करने की ज़हमत करें. और अपने अतराफ के और शुअरा को भी इस के बारे में ख़बर करें, ताकि वो भी इस्तेफ़ादा हासिल कर सकें.
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ghazal- bacha hi kya hai

बचा ही क्या है हाथों में, जो अब ऐ हमनफ़स जाए

नहीं परवाह मुझ को, आशियाँ जाए, क़फ़स जाए

 

चलो फिर नोच लें दीदार की क़ुव्वत निगाहों से

कहीं गुस्ताख़ आँखों में न कोई ख़्वाब बस जाए

 

खुरच डाला है मैं ने हर निशां माज़ी का यादों से

तो फिर क्यूँ दिल में रह रह कर कोई काँटा सा धंस जाए

 

सहर तक फैल जाए तीरगी का जहर आँखों में

ये काली रात की नागन  मेरे ख़्वाबों को डस जाए

 

बसेरा ऐसा डाला बेहिसी ने ज़ेहन के अंदर

दिल-ए-महरूम अब तो एक हसरत को तरस जाए

 

कोई सब्ज़ा यहाँ अब सरनिगूँ हो भी तो कैसे हो

त’अस्सुब की तपिश से जब हर इक तिनका झुलस जाए

 

न जाने कब हदें सब तोड़ दे सैलाब, साहिल की

घिरा है अब्र सा दिल पर, न जाने कब बरस जाए

 

ये साजिश वक़्त की है या मुक़द्दर की इनायत है

मुझे “मुमताज़” जो देखे, मेरी हालत पे हँस जाए

TARAHI GHAZAL

खुली नसीब की बाहें मरोड़ देंगे हम 
कि अब के अर्श का पाया झिंझोड़ देंगे हम 

जुनूँ बनाएगा बढ़ बढ़ के आसमान में दर 
ग़ुरूर अब के मुक़द्दर का तोड़ देंगे हम 

अभी उड़ान की हद भी तो आज़मानी है
फ़लक को आज बलंदी में होड़ देंगे हम 

है मसलेहत का तक़ाज़ा तो आओ ये भी सही 
हिसार-ए -आरज़ू थोडा सिकोड़ देंगे हम

कोई ये दुश्मन-ए -ईमान से कह दो जा कर
जेहाद-ए -वक़्त को लाखों करोड़ देंगे हम

इरादा कर ही लिया है तो जान भी देंगे
इस इम्तेहाँ में लहू तक निचोड़ देंगे हम

उठेगा दर्द फिर इंसानियत के सीने में
हर एक दिल का फफोला जो फोड़ देंगे हम

समेट लेंगे सभी दर्द के सराबों को
शिकस्ता ज़ात के टुकड़ों को जोड़ देंगे हम

अगर यकीन है खुद पर तो ये भी मुमकिन है
“हवा के रुख को भी जब चाहें मोड़ देंगे हम”

अना भी आज तो “मुमताज़” कुछ है शर्मिंदा
चलो फिर आज तो ये जिद भी छोड़ देंगे हम

khuli naseeb ki baaheN marod denge ham
ke ab ke arsh ka paaya jhinjod denge ham

junooN banaaega badh badh ke aasmaan meN dar
ghuroor ab ke muqaddar ka tod denge ham

abhi udaan ki had bhi to aazmaani hai
falak ko aaj balandi meN hod denge ham

hai maslehat ka taqaaza to aao ye bhi sahi
hisaar-e-aarzoo thoda sikod denge ham

koi ye dushman-e-imaan se keh do jaa kar
jehaad-e-waqt ko laakhoN karod denge ham

iraada kar hi liya hai to jaan bhi denge
is imtehaaN meN lahoo tak nichod denge ham

uthega dard phir insaaniyat ke seene meN
har ek dil ka phaphola jo phod denge ham

samet lenge sabhi dard ke saraaboN ko
shikasta zaat ke tukdoN ko jod denge ham

agar yaqeen hai khud par to ye bhi mumkin hai
“hawaa ke rukh ko bhi jab chaaheN mod denge ham”

anaa bhi aaj to “Mumtaz” kochh hai sharminda
chalo phir aaj to ye zid bhi chhod denge ham